भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा क्यों निकाली जाती है ?

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रथ यात्रा परिचय :

रथ यात्रा भगवान जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा से जुड़ा एक हिंदू त्योहार है, जो भारत में आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ का मूल मंदिर उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी शहर में स्थित है।

रथ यात्रा की कथा :

भगवान कृष्ण अपने भाई भगवान बलराम के साथ द्वारका के बाहर गए। उस समय कृष्ण भगवान की 16108 रानियों ने रोहिणी माँ (बलराम की माँ) से पूछा कि हम कृष्ण भगवान की इतनी सेवा करते हैं,  फिर भी कृष्ण भगवान पूरे दिन राधा का नाम क्यों लेते हैं। तब रोहिणी की मां ने कहा कि अगर कृष्ण और बलराम महल में प्रवेश नहीं करेंगे तो मैं कहूंगी।

रानियों ने सोचकर सुभद्रा को  दरवाजे के बाहर पेहरा रखने के लिए रखा और उसे किसी को भी अंदर न जाने देने के लिए कहा। फिर रोहिणी माँ ने कहानी शुरू की। सुभद्रा ने द्वार पर अपना कान रखते हुए अंदर की कहानी सुननी शुरू की। 

जब कृष्ण और बलराम वापस लौटे, तो उन्होंने देखा कि सुभद्रा अपने कान दरवाजे तरफ रखके कुछ सुनने की कोशिश कर रही थी। जब कृष्ण और बलराम महल में प्रवेश कर रहे थे, तो सुभद्रा ने उन्हें रोक दिया। तो कृष्ण और बलराम ने सुभद्रा की तरह अपने कान द्वार पर रखते हुए अंदर की कहानी सुनने लगे। 

एकाएक भक्ति के कारण तीनों के हाथ-पैर सिकुड़ने लगे और उनकी आँखें बड़ी होने लगीं। तभी नारद मुनि कृष्ण भगवान से मिलने के लिए द्वारका आए, तो उन्होंने देखा कि कृष्ण के हाथ और पैर सिकुड़ गए थे और आँखें बड़ी हो गई थीं। नारद मुनि ने कृष्ण भगवान से कहा कि आप अपना यह रूप दुनिया को दिखाओ। तब भगवान कृष्ण ने नारद मुनि को त्रेतायुग मे दुनिया को दिखाने का वादा किया।

भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा
भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा

भारत में रथयात्रा का त्यौहार कैसे मनाया जाता है ?

भारत में मुख्य रथ यात्रा “जगन्नाथ पुरी” की यात्रा है, कई शहरों के अलावा एक ही दिन इस यात्रा का आयोजन किया जाता है। हर दिन, भक्तों को भगवान के दर्शन करने के लिए भगवान के पास जाना पड़ता है, लेकिन रथ यात्रा के दिन भगवान उनके सामने चल कर  अपने भक्तों के पास जाते हैं।

जगन्नाथ मंदिर में जगन्नाथ (कृष्ण), सुभद्रा और बलराम की मूर्तियों की पूजा साल भर की जाती है, लेकिन वर्ष में एक बार, आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन तीनों मूर्तियों को पुरी से लगभग तीन किमी दूर स्थित गुडीचा मंदिर मे तीनों मूर्तियों को  बड़े बड़े रथो में बैठा कर लाया जाता है और जनता को दर्शन का लाभ दिया जाता है। 

इस त्योहार को “रथ यात्रा” के रूप में जाना जाता है। यह रथ के पहिये मे लकड़ी का उपयोग होता है और बहोत बड़े बने होते हैं। जिसे हर साल नया बनाया जाता है और भक्तों द्वारा खींच कर ले जाया जाता है। 

जगन्नाथजी का रथ लगभग 45 फीट ऊँचा और 35 फीट चौकोर है, जिसे बनने में लगभग दो महीने लगते हैं। पुरी के कलाकारों और चित्रकारों ने रथों के विशाल पहिये को लकड़ी मे से बनाते है और उस पर कलाकारो की मदद से घोड़ो और कमल के फूलो की आकृतियों को रथ पर उकेरा जाता है। रथ के सिंहासन की पीठ पर उल्टे पीलिया वाले रूपांकनों को भी चित्रित किया जाता है। इस रथ यात्रा को “गुंडिचा यात्रा” भी कहा जाता है।

रथ यात्रा से जुड़े सबसे उल्लेखनीय अनुष्ठानों में से एक “छत्र पुरा” है। त्यौहार के दौरान, गजपति राजा (गजपति राज्य के राजा) एक सफाई कर्मचारी के परिधान को सुशोभित करते हैं और मूर्तियों और रथ के चारों ओर अंतरिक्ष के साथ एक अनुष्ठान धोते हैं। राजा, भक्तिभावसे सोने से मढ़वाया हुए हाथ से खींच कर रथ आगे की और ले जाते है। उस पर सुखड़ की लकड़ी के सुगंधित पानी और पाउडर छिड़कते है। 

प्रथा के अनुसार, गजपति राजा कलिंग साम्राज्य का सर्वोच्च और प्रतिष्ठा व्यक्ति कहलते है, वे जगन्नाथजी की सेवा में सभी छोटे से छोटा काम करते है और इस संदेश को व्यक्त करना चाहते हैं कि भगवान जगन्नाथजी के सामने सम्राट या सामान्य भक्त के बीच कोई भेद नहीं है।

चेर पहर की पुजा दो दिनों तक होती रहती है, रथ यात्रा के पहले दिन, जब मूर्तियों मौसी के मंदिर (फूलघर) के पास ले जाया जाता है और फिर अंतिम दिन, जब मूर्तियों को वापस श्री मंदिर ले जाया जाता है।

एक और विधि जिसमे मूर्तियो को श्री मंदिर से रथ पर लिया जाता है जिसे “पहाड़ी विजय” कहा जाता है।

रथ यात्रा के त्योहार पर, जगन्नाथ मंदिर से मूर्तियो को रथ मे बेठा कर गुंडिचा मंदिर लेजाया जाता है। जहां वह नौ दिनों तक रखते है। उसके बाद, मूर्तियाँ फिर से रथ मे बेठा कर इसे वापस श्री मंदिर लाया जाता है। 

जिसे हम “बहुदा यात्रा” कहते हैं। इस वापसी यात्रा पर, तीनों रथ मौसीमाँ मंदिर में एक विराम लेते हैं, जहां पर भाविकों को प्रसाद मे “पोदा पिठा” (जो अक्सर गरीबों के मुख्य भोजन के लिए रोटी का एक बड़ा हिस्सा होता है) दिया जाता है।

रथ यात्रा का त्यौहार कबसे मनाते है ?

जगन्नाथ का यह रथ यात्रा पुराण कालिन प्रतीत होता है। जैसा की हम सभी जानते है की ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण और स्कंद पुराण में इस रथ यात्रा का वर्णन है। कपिला संहिता में रथ यात्रा का भी उल्लेख है।

मुगल काल के दौरान, राजस्थान के जयपुर के राजा राम सिंह ने भी 18 वीं शताब्दी में जगन्नाथजी की पुरी की यात्रा का पूरा वर्णन किया है। ओडिशा में, मयूरभंज और पार्लाखेमुंडी के राजाओं ने भी पुरी की तरह ही रथयात्रा की।

ई.स. 1150 के आसपास गंगा साम्राज्य के शासकों ने महान मंदिरों को बनाने मे पूर्ति  होने पर रथ यात्रा का आयोजन किया। यह हिंदू धर्म के त्योहारों में से एक है जिन्हें पश्चिमी दुनिया के लोग पहले से ही जानती थी। इस लिए कहा जाता है की यह  त्योहार लंबे समय से दुनिया के दूसरे लोगों जानते थे। 

मार्को पोलो के बाद लगभग 20 साल बाद, पोर्डेनोनना फरियार ओड़ोरिक नमक यात्री ने ई.स. 1316 से 1318 के दौरान भारत का दौरा किया। उन्होने अपनी इस यात्रा के दौरान अपनी स्मरण पुस्तक मे  में वर्णन किया है कि लोगों को उनके उपासकों (मूर्तियों) रथ मे बिठाते, बादमे राजा, रानी और सभी लोग उन्हें मंदिरमे से गाते, बजाते ले जाते।

गुजरातमे रथयात्रा

गुजरात में अहमदाबाद के जगन्नाथ मंदिर से प्रस्थान करती रथ यात्रा सबसे बड़ी यात्रा है, वडोदरा में इस्कॉन द्वारा आयोजित यात्रा दूसरी सबसे बड़ी रथ यात्रा है। इसके अलावा, सूरत में भी  इस्कॉन द्वारा आयोजन हर साल उसी दिन होता है।

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