सिकंदर और साधू की कहानी
दुनिया को जीत ने के लिए निकाला सिकंदर जब भारत आया तो उन्हे एक साधू मिल गया, बातों –बातों मे उस साधू ने सिकंदर से एक सवाल किया, मान लीजिए की आप अपनी सेना से अलग हो गए और एक रेगिस्तान मे खो गए। और चारो तरफ रेत ही रेत है, सख्त गर्मी है और तुम दो दिन से भूखे-प्यासे हो, एक भी कदम आगे बढ़ने की ताकत नहीं रही।
एसे समय मे ऊंट की सवारी करके कोई राहगीर आप को दिखाई देता है, उसके पास पानी से भरा एक घड़ा है। वह राहदारी पानी से भरा वह घड़ा आप को देने के लिए तैयार है मगर वह इसके बदले मे आपका राज्य चाहता है, तो तुम क्या करोगे?
सिकंदरने उस साधू के सामने देखा, उनकी दार्शनिक आंखें तीखे सवाल पूछ रही थीं। सिकंदर ने कहा – ‘अगर एसा हो तो मै उसे अपना पूरा राज्य सौंप दूँ’। साधू मन ही मन हंस पड़ा और बोले की, इसका मतलब की तुम्हारे साम्राज्य की कीमत पानी से भरे एक घड़े जितनी ही है। दुनिया को जीतकर अंत मे यही परिणाम आना है तो, इतनी महेनत करने का कोई मतलब है?
सिकंदर जवान था, और बहादुर था। खास करके वह अरस्तू जैसे गुरु का शिष्य था। फिर भी वह साधू के ज्ञान का अमल कर के बैठ नहीं सका। वह आगे ही आगे बढ़ता गया। कई सालो के बाद उसे जीवन का अर्थ समझ मे आया, लेकिन उस समय बहुत देर हो गई थी।
कहा जाता है की उसकी अंतिम घड़ी मे उन्होने कहा था की, कबर मे दफनाने से पहले उनके दोनों हाथ खुले रखे जाए, ताकि दुनिया को समजा सके की सिकंदर जैसा इंसान भी खाली हाथ बिदा हुआ था।
सांसरिक जीवन की कड़वी सच्चाई क्या है?
हम सांसारिक चीजों में इतने व्यस्त हैं कि हमने अपनी सहज संवेदनशीलता खो दी है। तिजोरी के कोने में पड़े नोटों के ढेर को देखना हमारी आंखों को ठंडक पहुंचाने वाला सबसे अच्छा दृश्य लगता है। रुपये की सरसराहट की आवाज कोयल की चहकने से भी ज्यादा मीठी लगती है। फायदे के दिन बिना नमक का खाना भी अच्छा लगता है। महीने का खर्च निकाल कर जो बचे हुए पैसे होते है वह हमारे लिए मल्टी विटामिन का काम करती है।
हमारा हर कर्म फलदायी, अर्थ प्रधान और अधम होता है, हम कर्म का दीपक तब तक नहीं जलाते जब तक हमें फल का निश्चय नहीं हो जाता। कितनी भी व्यक्तिगत संबंध हो या निजी रिश्ता हो, चाहे कैसी भी आपात स्थिति हो हमे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक कोई फल नहीं दिखाई देता तब तक हम एक इंच भी नहीं हिलते। यह पशु वृत्ति है। जिसे खींचने के लिए उसके गले में रस्सी बांधनी पड़ती है, वह जानवर है। और जो फल की आशा से बँधा हुआ है, वह पशु के समान है।
मनुष्य का अर्थ क्या होता है?
तो फिर मनुष्य का अर्थ क्या है? मनुष्य वह है जो अतीत के दबावों के आगे नहीं झुकता। जो भविष्य के फल की इच्छा नहीं करता, जो जीवन निर्वाह के लिए अपने हिस्से मे आये सभी कर्म खुशी-खुशी करता हो। अपने कर्म के परिणामस्वरूप, अपने आप को, अपने कर्म को ईश्वर के प्रति समर्पण करता हो। वह मनुष्य ही मनुष्य कहलाने के लायक है।
जैसा कि गीता मे कहा गया है, उस प्रकार उनका मानना है कि ‘मैं कुछ नहीं करता।’ फल की इच्छा करने वाले कितनी भी कोशिश कर ले, उसे सच्चे सुख का अनुभव नहीं होता। हम जानते हैं कि बांट ने से खुशी, शांति और परम आनंद मिलता है।
महापुरुषों की उदारता कैसी होती है?
असुरों के राजा वृत्रासुर के अत्याचार से देवताओं की रक्षा के लिए महर्षि दधीचि स्वेच्छा से अपना शरीर छोड़ कर अपनी हड्डियाँ देने के लिए तैयार होते है। उनकी हड्डियों से बना शस्त्र असुरो का नाश कर सकता है, यह जानकर उनको बहुत खुशी हुई।
अफ्रीका में कुष्ठ रोग के लिए एक अस्पताल बनाया जा रहा था। वहां स्टॉकहोम के अल्बर्ट श्वित्ज़र अस्पताल की छत पर काम करने मे मदद कर रहे थे। तभी एक आदमी उन्हें खबर देने आया, मिस्टर अल्बर्ट, इस बार आपको नोबेल शांति पुरस्कार देने का फैसला किया गया है। आपको स्टॉकहोम आना होगा। अल्बर्ट ने बस इतना ही कहा, ‘अच्छा किया अब पुरस्कार राशि इस अस्पताल को और अधिक सुविधाजनक बनाने का काम करेगी’।
महर्षि दधीचि या अल्बर्ट श्विट्ज़र जैसे लोगों के ये कर्म कोई फल की इच्छा से नहीं होते है, बल्कि लोकोपकार के लिए होते है। वे अपने लिए नहीं दूसरों के लिए सोचते है।
दूसरों का भला करने वाले लोग कैसे होते है?
लोकोपकार करने वालो मे कोई दंभ, कोई स्वार्थ, कोई लाभ या कोई आडंबर नहीं होता। बस, आनंद होता है और शांति होती है।
हम तो मंदिर भी अपने फल के लिए जाते है। हमारी प्रार्थना, हमारी मन्नते, हमारे उपवास, हमारे नियम भी मुफ्त के नहीं होते वह भी शरतों वाले होते है। याद रखों, जिसे कुछ नहीं चाहिए वह मंदिर नहीं जाता, अगर वह जाता भी है तो भगवान का धन्यवाद करने। परोपकारी व्यक्ति जिस जगह कर्म करता है वह जगह तीर्थ बन जाती है।
लेकिन हम तो सांसरिक जीव है। फल की इच्छा रखने वालो के बीच रहते है और एसे लोगो के बीच मे परोपकारी लोग कैसे जीवन व्यतीत करेंगे? इसका उपाय भगवान श्री कृष्ण गीता मे देते है की, जीने के लिए काम तो करना ही पड़ता है। चाहे वह मजदूरी हो, नौकरी हो, व्यवसाय हो या कोई अन्य काम हो, श्रम अवश्य करना चाहिए। लेकिन यह काम इंद्रियों को नियंत्रित करके किया जाना चाहिए।
लालच हमेशा क्यों कष्ट ही देता है?
एक बिल्ली को खाने के लिए हलवा दिया गया, बिल्ली हलवा खाने ही वाली थी कि उसने एक चूहे को पिंजरे में पकड़ा हुआ देखा, बिल्ली ने हलवा नहीं खाया और पिंजरे के चारों ओर घूमने लगी। सहज रूप से हलवा उपलब्ध था, लेकिन चूहे पर हमला करने के लिए वह ललचा रहा था। एसे में बिल्ली ने देखा कि सामने से एक कुत्ता आ रहा है, अब बिल्ली की जान बचाने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
जो आसानी से मिलता है उसे नज़रअंदाज करके अगर हम लालच करने जाए तो जो मिला है उसे भी छोडना पड़ता है।
बिल्लियाँ तो जानवर है, वे अपनी इंद्रियों को नियंत्रित नहीं कर सकती। लेकिन हम तो इंसान है। श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म करते समय ईर्ष्या, वासना, अहंकार, छल या लोभ जैसी फिसलन प्रवृत्तियाँ हमे बंधन मे डाल देती है। तो यह वृत्तियां हमे प्रभावित करें इससे पहले इंद्रियों पर काबू पा लें।
‘कर्म की कमाई’ से बंधन नहीं मुक्ति मिलनी चाहिए। पुण्य मिलना चाहिए। भगवन श्रीकृष्ण आश्वासन देते है कि ‘अच्छे कर्म करने वाले को कभी कष्ट नहीं होगा’।