भगवान श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती
शोक से बचाने वाला, प्रेम और विश्वास के रूप, दो अक्षरो वाला “मित्र” के रुपमे रत्न किसने बनाया होगा ? मित्रता के तीन लक्षण होते है, बुराई से रोकना, हित में कार्य करना और विपत्ति में पड़े बिना साथ रहना।
हम यहा दोस्ती की बात कर रहे है, दोस्ती की बात आते ही हमे श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती की बात याद आती ही है। महापुराण के दशवे सकन्ध के 80 और 81 वे अध्याय मे सुदामा चरित्र का सुंदर प्रतिनिधित्व किया हुआ है।
सुदाम भगवान श्रीकृष्ण के ब्राह्मण मित्र थे। वह जितेंद्रिय, शांत, संतोषी, विरक्त, अलिप्त और अनासक्त थे। वे सदा के लिए भिक्षा मांगकर उसे जो मिलता उसी मे से अपना संसार चलाता था,
भगवान श्री कृष्ण जब अवनति के आश्रम मे महर्षि संदीपनी के आश्रम मे शिक्षा प्राप्त करने गए तब अन्य छत्रों के साथ साथ सुदामा भी वहा पर अध्ययन करते थे। वहा श्री कृष्ण के साथ उनकी मित्रता हो गई थी।
दोनों साथ मे शिक्षण प्राप्त करते थे, गुरु की सेवा करते और जंगल मे जाकर गाय का चारा, लकड़िया और फल-फूल लाते थे, भगवान श्री कृष्ण ने कम ही समय मे अपनी वेद, वेदांग, शास्त्र और चौंसठ कलाएं सीखीं, और गुरु दक्षिणा देकर वापस द्वारका लौट आए थे।
उसके बाद कुछ महीनो मे सुदामा का भी शिक्षण पूरा हुआ और वह भी अपने घर लौट गए। कुछ समय के बाद सुदामा ने विवाह कर लिया और वह गृहस्थ जीवन जीना शुरू किया। उनकी पत्नी भी उनके जैसी सुशील और गुणवान थी।
सुदामा बहुत ही दरिद्र, निर्धन, गरीब ब्राह्मण थे। फिर भी उन्होने भगवान के पास कभी भी अपनी शिकायत नहीं करते थे। भिक्षा मे कभी कुछ नहीं मिलता तो वह व्रत करके अपना दिन गुज़ार लेता। अपना परिवार चलाने के लिए वह सक्षम नहीं था। इस लिए उनकी पत्नी भी उनसे नाराज़ रहती थी।
अपनी गरीबी से थक कर सुदामा की पत्नी ने उनसे कहा, लक्ष्मीपति द्वारकाधीश आपके परम मित्र है, और वह ब्राह्मणो का आदर सन्मान करने वाले माने जाते है, इसलिए हम आपसे एक बिनती करते है की आप एक बार उनसे मिलने के लिए अवश्य जाए।
सुदामा ने मन ही मन मे बहुत सोचा की वह तो महल मे रहने वाला है, और में तो गरीब हु मेरे पास तो पहनने को अच्छे वस्त्र भी नहीं है, वहा जाऊ तो कैसे जाऊ। फिर भी वह अपनी पत्नी को निराश करना नहीं चाहता था।
इसलिए सुदामा ने अपनी पत्नी से कहा की हा मे द्वारकाधीश श्रीकृष्ण को मिलने जाऊंगा, लेकिन में उनके पास कुछ भी माँगूँगा नहीं। सुदामा की पत्नी ने कहा, हा आपकी मरजी पहले आप वहा जाओ तो सही। सुदामा की पत्नी अपने पड़ोसी के पास पोहा लेकर आती है,
और एक कपड़े मे लपेट कर सुदामा को देती है, और कहने लगती है की अपने दोस्त के घर जाते समय खाली हाथ नहीं जाते। यह पोहा आप अपने मित्र को खाने के लिए देना।
सुदामा और उनके बाल सखा भगवान श्रीकृष्ण का मिलन।
सुदाम पोहा की पोटली को साथ लेकर खुल्ले पैर द्वारका जाने के लिए निकाल पड़ते है, चलते चलते वह द्वारका पहुँचते है। सोने से बने महलो वाली द्वारका नगरी को देखकर वह आश्चर्य चकित हो गए,
उस सबके बीच मे श्रीकृष्ण के महल को देखकर सुदामा सोचने लगे, की ऐसा महल तो देवराज इंद्रा का भी नहीं होगा। बाहर खड़े द्वारपाल से वह कहते है की आप भगवान श्रीकृष्ण से जा कर कहो के सुदामा आपसे मिलने के लिए आए है।
द्वारपाल यह बाद कहने के लिए श्रीकृष्ण के पास जाते है, बल सखा “सुदामा” का नाम सुनते ही अपनी रानीओ के साथ बैठे श्रीकृष्ण तुरंत ही खड़े हो जाते है, और सुदामा को लेने के लिए खुल्ले पैर दौड़े चले आते है। वहा द्वार पर खड़े सुदामा को देख कर अत्यंत खुश हो गए और खुशी से फुले नहीं समाये और सुदामा को जाकर गले लगा लिया।
श्रीकृष्ण ने अपने बालसखा सुदामा का स्वागत कैसे किया ?
अपने बालसखा सुदामा के हाथो को पकड़कर भगवान श्री कृष्ण उसे अपने महल मे ले आए। उनके स्वागत के लिए, पुजा के लिए और भोजन कराने के लिए अपनी रानी को आदेश देने लगे। श्रीकृष्ण जो सिहासन पर बेठते थे वहा पर सुदामा को बैठाकर वह उनके पैर दबाने लगते है।
खुल्ले पैर चलने से सुदामा के पैरों के तलवे मे चौंट लगाने से खून निकाल रहा था, यह देखकर भगवान श्रीकृष्ण की आंखो मे पानी की धारा बहने लगती है। उनकी रानी के हाथमे रखे सुवर्णपात्र मे रखे हुए पानी से नहीं, भगवान श्रीकृष्ण ने अपने आँसुओ से अपने सखा सुदामा के पैर धोये।
उसके बाद सुदामा को भोजन पिरसा जाता है, भोजन करने के बाद दोनों साथ बैठकर गुरुकुल के दिनो की बाते करने लगे। उसके बाद श्रीकृष्ण अपने दोस्त सुदामा से पुछते है, की हमारी भाभी ने हमारे लिए कुछ तो भेजा ही होगा, सुदामने कुछ जवाब नहीं दिया, वह द्वारकाधीश को अपने गंदे कपड़े मे लिपटे हुए पोहे देना नहीं चाहता था।
लेकिन श्रीकृष्ण तो अंतर्यामी थे इस लिए वह जन जाते है, और बोलने लगते है की ‘अगर भक्त प्रेमसे एक छोटे कण जितना भी उपहार दे दे, तो वह भी उनके लिए बहुत है’।
बादमे भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा की बगल मे छुपी हुई पोहे की पोटली को देख लिया, और उसे निकाल कर बोले भाभी ने मेरे लिए पुहे भेजे है, वह एक मुठ्ठि पोहा लेकर खा लेते है, और कहने लगते है कितने स्वादिष्ट अमृत जैसे पोहे है।
भगवान श्रीकृष्ण ने खाते खाते ही अपनी दिव्य शक्ति से देवो के देव शिल्पी विश्वकर्मा को आदेश देते है की, सुदामा की झूपाड़ी की जगह पर हमारे जैसा राज महल बनवा दिया जाए, और उसमे हमारे जीतने धन के भंडार दे दिये जाए।
भगवानाने सुदामा को इतना कुछ दे दिया, यह बात भगवान श्रीकृष्ण सुदामा को नहीं बताते। सुदामा को अपने बालसखा का बहुत प्रेम मिला, वह धन्यवाद देते हुए, वह अपने नगर वापस आए। अपने नगर वापस आने के बाद उसे पता चलता है की, उनके दोस्त ने उसे कुछ कहे बिना ही उनके जैसा राज महल, धन भंडार दे दिये है।
आप जानते ही होगे की सुदामा तो संसार और संपत्ति से अलग और अनासक्त रहकर भगवदभक्ति मे ही मग्न रहे।